Shiv Shlok in Sanskrit

Shiv Shlok in Sanskrit

(महादेव शिव शंकर पूजा श्लोक मंत्र , भगवान शिव के सभी संस्कृत श्लोक और मंत्र, Slokas on Shiva with meaning, Shiv Shlok in Sanskrit) भगवान शिव को देवों के देव महादेव कहा जाता है। क्योंकि जब सभी देवता हार मान जाते हैं तो भोले बाबा ही है, जो हर संभव से नैय्या को पार लगाने में सहायता करते हैं। हिंदू धर्म में महादेव को कल्याण का देवता माना गया है। इनके व्यक्तित्व के विभिन्न रंग है। इन्हें दया और करुणा के लिए भी जाना जाता है। महादेव को बेलपत्र और जल चढ़ाने से वह प्रसन्न हो जाते हैं और भक्तों की मनोकामना पूर्ण कर देते हैं।

 

ॐ नमो भगवते रुद्राय नमः

इस मंत्र को रुद्र मंत्र भी कहा जाता है। इस मंत्र का जाप करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है और जीवन में सुख भर आता है।


महाद्रिपार्श्वे च तटे रमन्तं सम्पूज्यमानं सततं मुनीन्द्रैः।
सुरासुरैर्यक्षमहोरगाद्यै: केदारमीशं शिवमेकमीडे।।

उन्होंने बड़े-बड़े पर्वतों के तट पर आनंद उठाया और लगातार महान ऋषियों द्वारा उनकी पूजा की जाती थी
मैं अकेले भगवान शिव, भगवान केदार, की पूजा करता हूं, जो देवताओं, राक्षसों, यक्षों, महान नागों और अन्य लोगों से घिरे हुए हैं।


ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि
तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्!

इस मंत्र को सर्वशक्तिशाली माना जाता है और यह शिव गायत्री मंत्र है। इस मंत्र का जप करने से व्यक्ति के मन में शांति बनी रहती है |


न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खं
न मन्त्रो न तीर्थं न वेदो न यज्ञः।
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता
चिदानन्द रूप: शिवोऽहं शिवोऽहम्।।

 न मैं पुण्य हूँ, न पाप, न सुख और न दुःख, न मन्त्र, न तीर्थ, न वेद और न यज्ञ, मैं न भोजन हूँ, न खाया जाने वाला हूँ और न खाने वाला हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ।


ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्,
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।।

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगंधिम् पुष्टिवर्धनम्,
जिस प्रकार उर्वशी ने अमृत से मुक्ति पायी, उसी प्रकार मुझे भी मृत्यु के बंधन से मुक्त कर दीजिये।


नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपं।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं। चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं।

मैं निर्वाणस्वरूप भगवान शिव को नमस्कार करता हूँ। ईश्वर ब्रह्म वेद का व्यापक स्वरूप है।
उसका अपना, पारलौकिक, पारलौकिक, निःस्वार्थ। मैं चेतना के आकाश, आकाश में निवास की पूजा करता हूं।


नमस्ते भगवान रुद्र भास्करामित तेजसे।
नमो भवाय देवाय रसायाम्बुमयात्मने।।

हे भगवान रूद्र, सूर्य के समान तेज को मैं नमस्कार करता हूँ।
भव, स्वाद के देवता, जल के स्वंय को नमस्कार।


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नम: शिवाय च शिवार्पणं कर्म।

हे शिव, शिव को समर्पित कर्म का नाम है।

Shiv Shlok in Sanskrit

वन्दे शम्भुमुमापतिं सुरगुरुं वन्दे जगत्कारणम्।

 मैं शिव-पति और सुरों के गुरु को वंदना करता हूँ, जगत के कारण को भी वंदना करता हूँ।

शिवो हि ध्यानयोगत्मा शिवः कर्मसमाचर।

शिव ध्यान और कर्म में ही स्थित हैं।

कर्पूरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारम्।

कर्पूर के समान गोरे और करुणा के अवतार, संसार के सार हैं और सर्पों के हारधारी हैं।

त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। 

 हम उस त्रिदेव भगवान शिव का पूजन करते हैं, जिसका गंध सुगंधित है और जो पुष्टि वृद्धि करते हैं।

ॐ नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शंकराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च ।

 जो सर्व कल्याणकारी है ,उसे प्रणाम ; जो सभी को सर्वोत्तम सुख देने वाला है, उसको प्रणाम ; जो सभी का मंगल करने वाला है ,उसको प्रणाम जो सर्व का सत्कार करने वाला है उसको प्रणा

ॐ सह नाववतु
सह नौ भुनक्तु
सह वीर्यं करवावहै
तेजस्वि नावधीतमस्तु
मा विद्विषावहै।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥

ब्रह्मा, विष्णु और महेश के साथ हमारे अनुभवों में शांति रहे। हम सभी अपनी शक्तियों को मिलाकर सह करें और सभी में ऊर्जा बढ़ाएं, ताकि हमारा साथी दोषी न हो। ओं, शांति, शांति, शांति।

असतो मा सद्गमय
तमसो मा ज्योतिर्गमय
मृत्योर्मा अमृतं गमय
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥

मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो। मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मुझे मृत्यु से अमृतता की ओर ले चलो। ओं, शांति, शांति, शांति।

सर्वे भवन्तु सुखिनः
सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु
मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत

Shiv Shlok in Sanskrit

सभी सुखी हों, सभी स्वस्थ हों। सभी भले हों और सब दुःखों से बचे रहें। किसी को भी कभी दुःख का सामना न करना पड़े।

कर्मण्येवाधिकारस्ते
मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥

तेरा अधिकार कर्म करने में ही है, फल में कभी नहीं। फल के हेतु में तू कभी नहीं होना चाहिए, और न ही कर्म में तू आसक्त होना।

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अहिंसा परमो धर्मः
धर्म हिंसा तथैव च।
अहिंसा सर्वभूतेषु
यस्मिन् सा भाविनी मतिः॥

अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है, धर्म का वही अर्थ है। अहिंसा सभी प्राणियों में जो हो, वही सच्ची बुद्धि है।

श्रेयो भूयात् सकलजगतां हिताय
भवन्ति ये भवति भूषणमृग्यः।
स्नेहः पशूनां श्वमतः पुरः पश्येत्
पश्येम शर्म बहुशो विश्वमिष्टयः॥

वह धर्म जो सब लोगों के लिए उत्तम हो, वह श्रेयस्कर होता है। वे लोग जो दूसरों के हित में प्रयत्नशील होते हैं, वे समाज के लिए महत्त्वपूर्ण होते हैं। स्नेह वही है जो पशुओं का साथ देता है, और वही जो सब कुछ प्राप्त करने में सहायक होता है। हम सब को इस विश्व में बहुत से शर्म से देखना चाहिए।

सर्वेषाम् स्वस्तिर्भवतु
सर्वेषाम् शान्तिर्भवतु
सर्वेषाम् पूर्णं भवतु
सर्वेषाम् मङ्गलं भवतु॥

सभी के लिए शुभ हो, सभी के लिए शांति हो, सभी को पूर्णता प्राप्त हो, सभी के लिए मंगलमय जीवन हो।

यथा बुद्ध्या धरेत्पुष्टिं
शुभाय देवता महीम्।
अतः सङ्कीर्तनात्सद्यः
कुतः शुभानि रागवान्॥

जिस प्रकार बुद्धि से पुष्टि की जाती है, उसी प्रकार देवताओं को अपनी महिमा के लिए शुभ होते हैं। इसलिए संकीर्तन से तुरंत ही लाभ होता है, क्योंकि रागवान लोग कैसे भी शुभ कार्यों को नहीं छोड़ सकते हैं।

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥

सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, और अन्न पर्जन्य से उत्पन्न होता है। यज्ञ से पर्जन्य उत्पन्न होता है, और यज्ञ कर्म से उत्पन्न होता है।

सर्वेषाम् स्वस्तिर्भवतु
सर्वेषाम् शान्तिर्भवतु
सर्वेषाम् पूर्णं भवतु
सर्वेषाम् मङ्गलं भवतु॥

सभी के लिए शुभ हो, सभी के लिए शांति हो, सभी को पूर्णता प्राप्त हो, सभी के लिए मंगलमय जीवन हो।

यथा बुद्ध्या धरेत्पुष्टिं
शुभाय देवता महीम्।
अतः सङ्कीर्तनात्सद्यः
कुतः शुभानि रागवान्॥

सभी के लिए शुभ हो, सभी के लिए शांति हो, सभी को पूर्णता प्राप्त हो, सभी के लिए मंगलमय जीवन हो।

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥

हे अर्जुन! योग में स्थित होकर कर्म करो, संग को त्यागकर। सिद्धि-असिद्धि में समान बनकर, समता को योग कहते हैं।

श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥

जो श्रद्धावान है, वह ज्ञान प्राप्त करता है, जो तत्पर है और अपने इंद्रियों को वश में रखता है। ज्ञान प्राप्त करके वह परम शान्ति को जल्दी ही प्राप्त कर लेता है।

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥

दो प्रकार के पुरुष हैं इस संसार में, क्षर और अक्षर। सभी प्राणी क्षर हैं, परन्तु कूटस्थ (अविनाशी) अक्षर कहलाता है।

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द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥

दो प्रकार के पुरुष हैं इस संसार में, क्षर और अक्षर। सभी प्राणी क्षर हैं, परन्तु कूटस्थ (अविनाशी) अक्षर कहलाता है।

नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय भस्माङ्गरागाय महेश्वराय।
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय तस्मै नकाराय नम: शिवाय ॥

जो शिव नागराज वासुकि का हार पहिने हुए हैं, तीन नेत्रों वाले हैं, तथा भस्म की राख को सारे शरीर में लगाये हुए हैं, इस प्रकार महान् ऐश्वर्य सम्पन्न वे शिव नित्य–अविनाशी तथा शुभ हैं। दिशायें जिनके लिए वस्त्रों का कार्य करती हैं, अर्थात् वस्त्र आदि उपाधि से भी जो रहित हैं; ऐसे निरवच्छिन्न उस नकार स्वरूप शिव को मैं नमस्कार करता हूँ। ।

वसिष्ठकुम्भोद्भवगौतमार्य मुनीन्द्रदेवार्चितशेखराय।
चन्द्रार्कवैश्वानरलोचनाय तस्मै वकाराय नम: शिवायः ॥

Shiv Shlok in Sanskrit


जो शिव स्वयं कल्याण स्वरूप हैं, और जो पार्वती के मुख कमलों को विकसित करने के लिए सूर्य हैं, जो दक्ष–प्रजापति के यज्ञ को नष्ट करने वाले हैं, नील वर्ण का जिनका कण्ठ है, और जो वृषभ अर्थात् धर्म की पताका वाले हैं; ऐसे उस शिकार स्वरूप शिव को मैं नमस्कार करता हूँ।

यक्षस्वरूपाय जटाधराय पिनाकहस्ताय सनातनाय।
दिव्याय देवाय दिगम्बराय तस्मै यकाराय नम: शिवाय् ॥

जो शिव यक्ष के रूप को धारण करते हैं और लंबी–लंबी खूबसूरत जिनकी जटायें हैं, जिनके हाथ में ‘पिनाक’ धनुष है, जो सत् स्वरूप हैं अर्थात् सनातन हैं, दिव्यगुणसम्पन्न उज्जवलस्वरूप होते हुए भी जो दिगम्बर हैं; ऐसे उस यकार स्वरूप शिव को मैं नमस्कार करता हूँ।

सदुपायकथास्वपण्डितो हृदये दु:खशरेण खण्डित:।
शशिखण्डमण्डनं शरणं यामि शरण्यमीरम् ॥

हे शम्भो! मेरा हृदय दु:ख रूपीबाण से पीडित है, और मैं इस दु:ख को दूर करने वाले किसी उत्तम उपाय को भी नहीं जानता हूँ अतएव चन्द्रकला व शिखण्ड मयूरपिच्छ का आभूषण बनाने वाले, शरणागत के रक्षक परमेश्वर आपकी शरण में हूँ। अर्थात् आप ही मुझे इस भयंकर संसार के दु:ख से दूर करें।

महत: परित: प्रसर्पतस्तमसो दर्शनभेदिनो भिदे।
दिननाथ इव स्वतेजसा हृदयव्योम्नि मनागुदेहि न:॥

हे शम्भो हमारे हृदय आकाश में, आप सूर्य की तरह अपने तेज से चारों ओर घिरे हुए, ज्ञानदृष्टि को रोकने वाले, इस अज्ञानान्ध्कार को दूर करने के लिए प्रकट हो जाओ। ;सूर्य जिस प्रकार अपने तेज–प्रकाश से रात्रिा जन्य अन्ध्कार को दूर कर देता है, उसी प्रकार आप भी यदि हमारे हृदय में प्रकट रहेंगे अर्थात् हमारे यान में रहेंगे तो जरूर हमारा भी कुछ न कुछ अज्ञानान्ध्कार दूर हो जायेगा।

सविषोप्यमृतायते भवाछवमुण्डाभरणोपि पावन:।
भव एव भवान्तक: सतां समदृखिवषमेक्षणोपि सन् ॥

हे शम्भो! आप विषसहित होते हुए भी अमृत के समान हैं, शवों के मुण्डों से सुशोभित होते हुए भी पवित्रा हैं। स्वयं ;जगत् के उत्पादकद्ध भव होते हुए भी, सज्जनों के या सन्तों के ;सांसारिक बन्ध्नद्ध को दूर करने वाले हैं। विषमनेत्रा अर्थात् तीन नेत्रा ;सूर्य, अग्नि, चन्द्र नेत्राद्ध वाले होते हुए भी समदृष्टि अर्थात् पक्षपात रहित हैं।

ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जयस्फुलिङ्गभा- निपीतपञ्चसायकं नमन्निलिम्पनायकम्।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं महाकपालि सम्पदे शिरो जटालमस्तु नः ।।6।।

जिन्होंने ललाट वेदी पर प्रज्वलित हुई अग्नि के स्फुलिंगों के तेज से कामदेव को नष्ट कर डाला था, जिनको इन्द्र नमस्कार किया करते हैं, सुधाकर की कला से सुशोभित मुकुट वाला वह (श्रीमहादेवजी) उन्नत विशाल ललाट वाला जटिल मस्तक हमारी संपत्ति का साधक हो ।।6।।

करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल- द्धनञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके । धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रक- प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम ।।7।।

जिन्होंने अपने विकराल विकराल भालपट्ट पर धक् धक् जलती हुई अग्नि में प्रचंड कामदेव को हवन कर दिया था, गिरिराज किशोरी के स्तनों पर पत्र भंग रचना करने के एकमात्र कारीगर उन भगवान त्रिलोचन में मेरी धारणा लगी रहे।।7।।

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नवीनमेघमण्डलीनिरुद्धदुर्धरस्फुर- त्कुहूनिशीथिनीतमः प्रबन्धबद्धकन्धरः। निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुरः कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगद्धुरन्धरः ।।8।।

जिनके कंठ में नवीन मेघमाला से घिरी हुई अमावस्या की आधी रात के समय फैलते हुए दुरूह अंधकार के समान श्यामता अंकित है; जो गजचर्म लपेटे हुए हैं, वे संसार भार को धारण करने वाले चन्द्रमा [-के सम्पर्क] से मनोहर कांति वाले भगवान गंगाधर मेरी संपत्ति का विस्तार करें।। 811

अहो बत भवान्येतत् प्रजानां पश्य वैशसम्
क्षीरोदमथनोद्भूतात् काळकूटादुपस्थितम् ।
आसां प्राणपरीप्सुनाम् विधेयमभयं हि मे ।
एतावान्हि प्रभोरर्थो यद् दीनपरिपालनम् ।

अर्थात् हे देवि ! समुद्र-मंथन से निकले कालकूट विष के कारण प्रजा पर कितना बड़ा दुःख आ पड़ा है । इस समय मेरा कर्त्तव्य है कि प्राणरक्षा के इच्छुक इन लोगों को मैं निर्भय कर दूँ । जो सामर्थ्यवान है, साधनसंपन्न हैं, उन्हें अपने सामर्थ्य से दूसरों का दुःख अवश्य दूर करना चाहिए, इसीमें उनके जीवन और सामर्थ्य की सफलता है । यह कह कर उन्होंने हलाहल-पान किया और उस विष को अपने कंठ में रख लिया जिससे उनका कंठ-प्रदेश नील वर्ण का हो गया । इस प्रकार वे नीलकण्ठ कहलाये ।

मनुज दुग्ध से, दनुज रुधिर से
अमर सुधा से जीते हैं
किन्तु हलाहल भव – सागर का
शिव शंकर ही पीते हैं ।

Shiv Shlok in Sanskrit

इस प्रकार विष को कण्ठ में रखने से भगवान शंकर का कंधर-प्रदेश कल्माष रंग से रंजित हुआ । हिंदी भाषा में `कंध` शब्द स्कंध के अर्थ का द्योतक है, किन्तु संस्कृत भाषा में इससे `ग्रीवा या `कण्ठ` अर्थ अभिप्रेत है । कं +धरः= कंधर, कं का अर्थ है सिर और धर: यानि धारण करने वाला । सिर पर धारण करने के आशय से कण्ठ को कन्धर कहा जाता है ।

अखर्वसर्वमङ्गलाकलाकदम्बमञ्जरी- रसप्रवाहमाधुरीविजृम्भणामधुव्रतम्।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे॥

 कदंब पुष्प के मीठे रस से आकर्षित मधुमक्खियाँ जिसके चारों ओर हैं, जिसने कामदेव और त्रिपुरासुर को नष्ट किया, जो सांसारिक बंधनों का अन्त करने वाला है, तथा जिसने (दक्ष का) यज्ञ, अंधकासुर और गजासुर का अन्त किया, और यम को पराजित किया, मैं उस शिव की पूजा करता हूँ।

करचरण कृतं वा क्कायजं कर्मजं वा
श्रवणनयनजं वा मानसं वापराधम् ।
विहितम विहितं वा सर्वमे तत्क्षमस्व
जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेव शम्भो ॥

हे भगवान शिव, कृपया मेरे हस्त, चरण, वाणी, शरीर या अन्य किसी भी शरीरके कर्म करने वाले अंग से या कान, नेत्र या मन से हुए सभी अपराधको क्षमा करें। हे महादेव, शम्भो! आपके करुणाके सागर हैं, आपकी जय हो।

न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्षः
चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥

मैं धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष से परे हूँ। मैं आनन्दमय चेतना हूँ। मैं शिव हूँ, मैं शिव हूँ।

करचरण कृतं वा क्कायजं कर्मजं वा
श्रवणनयनजं वा मानसं वापराधम् ।
विहितम विहितं वा सर्वमे तत्क्षमस्व
जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेव शम्भो ॥

 हे भगवान शिव, कृपया मेरे हस्त, चरण, वाणी, शरीर या अन्य किसी भी शरीरके कर्म करने वाले अंग से या कान, नेत्र या मन से हुए सभी अपराधको क्षमा करें। हे महादेव, शम्भो! आपके करुणाके सागर हैं, आपकी जय हो।

पद्मावदातमणिकुण्डलगोवृषाय
कृष्णागरुप्रचुरचन्दनचर्चिताय ।
भस्मानुषक्तविकचोत्पलमल्लिकाय
नीलाब्जकण्ठसदृशाय नमः शिवाय ॥

 जो स्वच्छ पद्मरागमणि के कुण्डलों से किरणों की वर्षा करने वाले हैं, चन्दन तथा अगरू से चर्चित तथा भस्म, जूही से सुशोभित और प्रफुल्लित कमल ऐसे नीलकमलसदृश कण्ठवाले शिव शंकर को प्रणाम!

मंदाकिनी सलिल चन्दन चर्चिताय
नन्दी श्वर प्रमथ नाथ महेश्वराय।
मन्दार पुष्प बहुपुष्प सु पूजिताय
तस्मै मकाराय नमः शिवाय॥

 जो शिव आकाशगामिनी मन्दाकिनी के पवित्र जल से संयुक्त तथा चन्दन से सुशोभित हैं, और नन्दीश्वर तथा प्रमथनाथ आदि गण विशेषों एवं षट् सम्पत्तियों से ऐश्वर्यशाली हैं, जो मन्दार–पारिजात आदि अनेक पवित्र पुष्पों द्वारा पूजित हैं; ऐसे उस मकार स्वरूप शिव को मैं नमस्कार करता हूँ।

महाद्रिपार्श्वे च तटे रमन्तं सम्पूज्यमानं सततं मुनीन्द्रैः।
सुरासुरैर्यक्ष महोरगाढ्यैः केदारमीशं शिवमेकमीडे॥

जो महागिरि हिमालयके पास केदारशृंगके तटपर सदा निवास करते हुए मुनीश्वरोंद्वारा पूजित होते है तथा देवता, असुर, यक्ष और महान् सर्प आदि भी जिनकी पूजा करते हैं, उन एक कल्याणकारक भगवान् केदारनाथका मैं स्तवन करता हूँ।

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न जानामि योगं जपं नैव पूजां
नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भुतुभ्यम् ।
जराजन्मदुःखौघ तातप्यमानं
प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो ॥

 मैं न तो जप जानता हूँ, न तप और न ही पूजा। हे शम्भो(शिव), मैं तो सदा सर्वदा आपको ही नमन करता हूँ। हे प्रभो! बुढ़ापा तथा जन्म के दु:ख समूहों से जलते हुए मुझ दुखी की दु:खों से रक्षा कीजिए। हे शम्भो, मैं आपको नमस्कार करता हूं।

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्,
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।।

 मैं न तो जप जानता हूँ, न तप और न ही पूजा। हे शम्भो(शिव), मैं तो सदा सर्वदा आपको ही नमन करता हूँ। हे प्रभो! बुढ़ापा तथा जन्म के दु:ख समूहों से जलते हुए मुझ दुखी की दु:खों से रक्षा कीजिए। हे शम्भो, मैं आपको नमस्कार करता हूं।

न जानामि योगं जपं नैव पूजां
नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भुतुभ्यम् ।
जराजन्मदुःखौघ तातप्यमानं
प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो ॥

हम त्रि-नेत्रीय वास्तविकता का चिंतन करते हैं जो जीवन की मधुर परिपूर्णता को पोषित करता है और वृद्धि करता है। ककड़ी की तरह हम इसके तने से अलग हों, अमरत्व से नहीं बल्कि मृत्यु से हों।
 
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपं।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं। चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं।
हे मोक्षरूप, विभु, व्यापक ब्रह्म, वेदस्वरूप ईशानदिशा के ईश्वर और हम सबके स्वामी शिवजी, आपको मैं नमस्कार करता हूं। निज स्वरूप में स्थित, चेतन, इच्छा रहित, भेद रहित, आकाश रूप शिवजी मैं आपको हमेशा भजता हूँ।
 
महाद्रिपार्श्वे च तटे रमन्तं सम्पूज्यमानं सततं मुनीन्द्रैः।
सुरासुरैर्यक्षमहोरगाद्यै: केदारमीशं शिवमेकमीडे

भगवान शिव शंकर जो पर्वतराज हिमालय के नजदीक पवित्र मन्दाकिनी के तट पर स्थित केदारखण्ड नामक श्रृंग में निवास करते हैं और हमेशा ऋषि मुनियों द्वारा पूजे जाते हैं। जिनकी यक्ष-किन्नर, नाग व देवता-असुर आदि भी हमेशा पूजा करते हैं उन अद्वितीय कल्याणकारी केदारनाथ नामक शिव शंकर की मैं स्तुति करता हूँ।

 
यं डाकिनीशाकिनिकासमाजे निषेव्यमाणं पिशिताशनैश्च।
सदैव भीमादिपदप्रसिद्धं तं शंकरं भक्तहितं नमामि।।

हे शम्भो, मैं अब दृष्टि लगाऊं, क्रिध्र देखूं, भयभीत में कैसे यहां रहूँ? मेरे प्रभु आप कहा पर है? आप मेरी रक्षा करों मैं आपकी शरण में आया हूँ।

 
आदित्य सोम वरुणानिलसेविताय यज्ञाग्निहोत्रवरधूमनिकेतनाय।
ऋक्सामवेदमुनिभि: स्तुतिसंयुताय गोपाय गोपनमिताय नम: शिवाय।।

जो चन्द्र, वरुण, सूर्य और अनिल द्वारा सेवित है और जिनका निवास अग्निहोत्र धूम एवं यज्ञ में है। वेद, मुनिजन तथा ऋक-सामादि जिसकी स्तुति प्रस्तुत करते हैं। उन नन्दीश्वरपूजित गौओं का पालन करने वाले भगवान शिव को मेरा प्रणाम।

अवन्तिकायां विहितावतारं मुक्तिप्रदानाय च सज्जनानाम्।
अकालमृत्यो: परिरक्षणार्थं वन्दे महाकालमहासुरेशम्।।

जो भगवान शिव शंकर संतजनों को मोक्ष प्रदान करने के लिए अवन्तिकापुरी उज्जैन में अवतार धारण किए हैं अकाल मृत्यु से बचने के लिए उन देवों के भी देव महाकाल नाम से विख्यात महादेव जी को मैं प्रणाम करता हूँ।

मन्दाकिनीसलिलचन्दनचर्चिताय नन्दीश्वरप्रमथनाथमहेश्वराय।
मन्दारपुष्पबहुपुष्पसुपूजिताय तस्मै मकाराय नम: शिवाय।।

जो भगवान शिव शंकर संतजनों को मोक्ष प्रदान करने के लिए अवन्तिकापुरी उज्जैन में अवतार धारण किए हैं अकाल मृत्यु से बचने के लिए उन देवों के भी देव महाकाल नाम से विख्यात महादेव जी को मैं प्रणाम करता हूँ।

पशूनां पतये चैव पावकायातितेजसे ।
भीमाय व्योमरूपाय शब्दमात्राय ते नमः ॥

अग्निरुप तेज व पशुपति रूपवाले हे देव ! आपको नमस्कार है । शब्द तन्मात्रा से युक्त आकाश रूपवाले हे भीमदेव ! आपको नमस्कार है ।

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मम यः स्थापयेल्लिंगं शुभं सद्म च कारयेत् ।
मल्लोके वसतेऽसौ च वावच्चंद्रदिवाकरौ ॥

यदि कोई मेरा लिंग स्थापित कर भव्य धाम (मंदिर) बनाता है, तो वह मेरे संसार में तब तक रहेगा जब तक चन्द्रमा और सूर्य रहेगा।

दृष्ट्वापि शिवनैवेद्ये यांति पापानि दूरतः ।
भक्ते तु शिवनैवेद्ये पुण्यान्या यांति कोटिशः॥

शिवनैवेद्य को देखनेमात्र से ही सभी पाप दूर हो जाते हैं और शिव का नैवेद्य भक्षण करने से तो करोड़ों पुण्य स्वतः आ जाते हैं

यद्गृहे शिवनैवेद्यप्रचारोपि प्रजायते ।
तद्गृहं पावनं सर्वमन्यपावनकारणम् ॥

जिस घर में शिव को नैवेद्य लगाया जाता है या अन्यत्र से शिव को समर्पित नैवेद्य प्रसादरूप में आ जाता है, वह घर पवित्र हो जाता है और वह अन्य को भी पवित्र करनेवाला हो जाता है ॥

पशूनां पतये चैव पावकायातितेजसे ।
भीमाय व्योमरूपाय शब्दमात्राय ते नमः ॥

अग्निरुप तेज व पशुपति रूपवाले हे देव ! आपको नमस्कार है । शब्द तन्मात्रा से युक्त आकाश रूपवाले हे भीमदेव ! आपको नमस्कार है ।

पुण्यतीर्थानि यावंति लोकेषु प्रथितान्यपि ।
तानि सर्वाणि तीर्थानिबिल्वमूलेव संति हि ॥

संसार में जितने भी प्रसिद्ध तीर्थ हैं, वे सब तीर्थ बिल्व के मूल में निवास करते हैं ॥

मुखे यस्य शिवनाम सदाशिवशिवेति च ।
पापानि न स्पृशंत्येव खदिरांगारंकयथा ॥

जिनके मुख में भगवान् शिव का नाम है, जो अपने मुख से सदा शिव-शिव इस नाम का उच्चारण करते रहते हैं, पाप उनका उसी तरह स्पर्श नहीं करते, जैसे खदिर वृक्ष के अंगार को छूने का साहस कोई भी प्राणी नहीं कर सकता ।

शर्वाय क्षितिरूपाय सदा सुरभिणे नमः ।
रुद्रायाग्निस्वरूपाय महातेजस्विने नमः ॥

नंदी और सुरभि कामधेनु भी आपके ही प्रतिरूप हैं । पृथ्वीको धारण करनेवाले हे शर्वदेव ! आपको नमस्कार है । हे वायुरुपधारी, वसुरुपधारी आपको नमस्कार है ।

पुण्यतीर्थानि यावंति लोकेषु प्रथितान्यपि ।
तानि सर्वाणि तीर्थानिबिल्वमूलेव संति हि ॥

संसार में जितने भी प्रसिद्ध तीर्थ हैं, वे सब तीर्थ बिल्व के मूल में निवास करते हैं ॥

पुण्यतीर्थानि यावंति लोकेषु प्रथितान्यपि ।
तानि सर्वाणि तीर्थानिबिल्वमूलेव संति हि ॥

Shiv Shlok in Sanskrit

संसार में जितने भी प्रसिद्ध तीर्थ हैं, वे सब तीर्थ बिल्व के मूल में निवास करते हैं ॥

FAQ's

Frequently Asked Questions
What is the Sanskrit shlok of shiva ?

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥

ॐ नमः शिवाय

ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि।
तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्॥

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