Best Bhagavad Gita Quotes in Sanskrit

Bhagavad Gita Quotes in Sanskrit

(Bhagavad Gita Quotes in Sanskrit, Bhagavad Gita quotes with meaning in Hindi and English, भगवदगीता के 10 सबसे लोकप्रिय श्लोक, Bhagavad Gita | भगवतगीता के 15 संस्कृत श्लोक हिंदी अर्थ) भगवद गीता, शाब्दिक रूप से “भगवान का गीत”, प्राचीन हिंदू महाकाव्य महाभारत का हिस्सा है और इसके अठारह प्रमुख उपनिषदों में से एक है।

परंपरागत रूप से भगवद गीता को वैदिक विचार के उदाहरण के रूप में कृष्ण और अर्जुन के बीच होने वाला एक प्रवचन माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि भविष्य में श्रीकृष्ण का महत्व और भी अधिक होगा। वह हमें अपना सर्वश्रेष्ठ करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं और गीता में उनकी महत्वपूर्ण शिक्षाएँ हैं। हमने गीता से शीर्ष 10 श्लोक चुने हैं, जो एक बहुत ही खास किताब है। जन्माष्टमी पर इन्हें पढ़ने से आपको कृष्ण के बारे में और अधिक जानने में मदद मिलेगी।

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ॥

भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि वासना जैसी बुरी चीजें लोगों से गलत काम करवा सकती हैं। वासना क्रोध में बदल जाती है और संसार में अनेक समस्याओं का कारण बनती है।


जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि॥

यह दुखद है जब कोई पैदा होता है और फिर मर जाता है क्योंकि यह कुछ ऐसा है जो हमेशा होता रहेगा। इसलिए, हमें इसके बारे में बहुत दुखी नहीं होना चाहिए क्योंकि यह कुछ ऐसा है जिसे हम बदल नहीं सकते हैं।


प्रारब्धं भुज्यमानो हि गीताभ्यासरतः सदा।
स मुक्तः स सुखी लोके कर्मणा नोपलिप्यते॥

जब कोई गीता की शिक्षाओं का पालन करता है और कठिन समय से गुजरता है, तब भी वह शांति और संतुष्ट महसूस कर सकता है, और वह अपने कार्यों से प्रभावित नहीं होगा।

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देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति॥

जैसे इस देह में देही जीवात्मा की कुमार, युवा और वृद्धावस्था होती है
वैसे ही उसको अन्य शरीर की प्राप्ति होती है। धीर पुरुष इसमें मोहित नहीं होता है।


य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥

जो आत्मा को मारने वाला समझता है और जो इसको मरा समझता है वे दोनों ही नहीं जानते हैं,
क्योंकि यह आत्मा न मरता है और न मारा जाता है।


न जायते म्रियते वा कदाचिन्
नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥

आत्मा किसी काल में भी न जन्मता है और न मरता है और न यह एक बार होकर फिर अभावरूप होने वाला है।
आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है, शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता।


वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥

ठीक उसी तरह जैसे लोग अपने पुराने कपड़े फेंक देते हैं और नए कपड़े पहन लेते हैं, ठीक उसी तरह हमारा शरीर जैसा हिस्सा अपना पुराना शरीर छोड़कर नया शरीर धारण कर लेता है।


इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥

प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग और द्वेष घात लगाये बैठे हैं । उनके वशीभूत न हो, क्योंकि वे दोनों आत्मा की यात्रा में उसके शत्रु (या लुठेरे) हैं ।


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Reference: SanskritSchool.in

नैनं छिद्रन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत॥

आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न आग उसे जला सकती है। न पानी उसे भिगो सकता है, न हवा उसे सुखा सकती है।

bhagavad gita quotes in sanskrit

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥

कर्म पर ही तुम्हारा अधिकार है, लेकिन कर्म के फलों में कभी नहीं। इसलिए कर्म करो, फल की चिंता मत करो।

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥

विषयों वस्तुओं के बारे में सोचते रहने से मनुष्य को उनसे आसक्ति हो जाती है। इससे उनमें इच्छा पैदा होती है और इच्छा में विघ्न आने से क्रोध की उत्पत्ति होती है।

क्रोधाद्भवति संमोह: संमोहात्स्मृतिविभ्रम:।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥

 क्रोध से मनुष्य की मति मारी जाती है। मति मारी जाने से मनुष्य की बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि का नाश हो जाने पर मनुष्य खुद का अपना ही नाश कर बैठता है।

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥

श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करते हैं, दूसरे मनुष्य भी वैसा ही आचरण, वैसा ही काम करते हैं। वह जो प्रमाण या उदाहरण प्रस्तुत करता है, समस्त मानव-समुदाय उसी का अनुसरण करने लग जाते हैं।

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥

 हे भारत, जब-जब धर्म का लोप होता है और अधर्म में वृद्धि होती है, तब-तब मैं धर्म के अभ्युत्थान के लिए स्वयम् की रचना करता हूँ।

हतो वा प्राप्यसि स्वर्गम्, जित्वा वा भोक्ष्यसे महिम्।
तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय:॥

 यदि तुम युद्ध में वीरगति को प्राप्त होते हो तो तुम्हें स्वर्ग मिलेगा। और यदि विजयी होते हो तो धरती का सुख को भोगोगे। इसलिए उठो, हे कौन्तेय निश्चय करके युद्ध करो।

परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे॥

 यदि तुम युद्ध में वीरगति को प्राप्त होते हो तो तुम्हें स्वर्ग मिलेगा। और यदि विजयी होते हो तो धरती का सुख को भोगोगे। इसलिए उठो, हे कौन्तेय निश्चय करके युद्ध करो।

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श्रद्धावान्ल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥

 श्रद्धा रखने वाले मनुष्य, अपनी इन्द्रियों पर संयम रखने वाले मनुष्य, साधनपारायण हो अपनी तत्परता से ज्ञान प्राप्त करते हैं, फिर ज्ञान मिल जाने पर जल्द ही परम-शान्ति को प्राप्त होते हैं।

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन:॥

 जो कोई भक्त मेरे लिये प्रेम से पत्ती, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्ध बुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्ती-पुष्पादि मैं सद्गुण रूप से प्रकट होकर प्रीति सहित खाता हूँ।

यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य:।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो य: स च मे प्रिय:॥

जिससे किसी को कष्ट नहीं पहुँचता तथा जो अन्य किसी के द्वारा विचलित नहीं होता, जो सुख-दुख में, भय तथा चिन्ता में समभाव रहता है, वह मुझे अत्यन्त प्रिय है।

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥

 सभी धर्मो को छोड़कर मेरी शरण में आ जाओ। मैं तुम्हे सभी पापो से मुक्त कर दूंगा, इसमें कोई संदेह नहीं हैं।

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्ग स्तेषूपजायते ।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥

“व्यक्ति जो विषयों पर ध्यान करता है, उसका उन विषयों में आसक्ति उत्पन्न होता है। आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और काम से क्रोध उत्पन्न होता है।”

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥

श्लोक के द्वारा श्री कृष्ण भगवान कहते हैं- आत्मा को न तो शस्त्र काट सकता है, न ही अग्नि जला सकती है, न ही पानी गिला कर सकती है और न ही वायु सूखा सकती है।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥

श्री कृष्ण भगवान अर्जुन से बोले- हे अर्जुन ! तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने पर है, फल पर नहीं। इसलिए तुम फल की चिंता को छोड़कर अपना कर्म करो। फल हर हाल में मैं ही दूंगा। जो व्यक्ति फल की अभिलाषा से कर्म करते हैं, वह न तो उचित कर्म कर पाते हैं और ना ही उस फल को प्राप्त कर पाते हैं। इसलिए हे अर्जुन ! कर्म को तुम अपना धर्म मानकर करो।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय,
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा
न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥

 श्री कृष्ण भगवान कहते हैं- जिस प्रकार मनुस्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नए वस्त्र धारण करता है, ठीक उसी प्रकार जीव आत्मा  भी पुराने शरीर को त्याग कर नए शरीर को धारण करती है, इसलिए ज्ञानी पुरुष कभी किसी के मरने का शोक नहीं मनाते।

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌ ॥ 
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌ ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ 

जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं प्रकट होता हूँ (अवतरित होता हूँ)
साधुजनों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की स्थापना करने के लिए, मैं हर युग में प्रकट होता हूँ 

यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्‌।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते॥

जो मुझको अजन्मा अर्थात्‌ वास्तव में जन्मरहित, अनादि और लोकों का महान्‌ ईश्वर तत्त्व से जानता है, वह मनुष्यों में ज्ञानवान्‌ पुरुष संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है।

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न कर्मणामनारंभान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति॥

 मनुष्य न तो कर्मों का आरंभ किए बिना योगनिष्ठा को प्राप्त होता है। और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि को ही प्राप्त होता है।

एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः॥

 जो पुरुष मेरी इस परमैश्वर्यरूप विभूति को और योगशक्ति को तत्त्व से जानता है। वह निश्चल भक्तियोग से युक्त हो जाता है। इसमें कुछ भी संशय नहीं है।

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्‌।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्‌॥

 सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है, वृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होने वाला है। कर्मसमुदाय को तू वेद से उत्पन्न और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान। इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है।

विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पंडिता: समदर्शिन:॥

 ज्ञानी महापुरुष विद्या-विनययुक्त ब्राह्मण में और चाण्डाल में तथा गाय, हाथी एवं कुत्ते में भी समरूप परमात्मा को देखने वाले होते हैं।

अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञित।।

 श्री भगवान ने कहा- परम अक्षर ‘ब्रह्म’ है, अपना स्वरूप अर्थात जीवात्मा ‘अध्यात्म’ नाम से कहा जाता है तथा भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला जो त्याग है, वह ‘कर्म’ नाम से कहा गया है।

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।
सर्वसङ्‍कल्पसन्न्यासी योगारूढ़स्तदोच्यते॥

जिस काल में न तो इन्द्रियों के भोगों में और न कर्मों में ही आसक्त होता है, उस काल में सर्वसंकल्पों का त्यागी पुरुष योगारूढ़ कहा जाता है।

अंतकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्‌।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः॥

 जो पुरुष अंतकाल में भी मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षात स्वरूप को प्राप्त होता है- इसमें कुछ भी संशय नहीं है।

तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा॥

 जो दुःख रूप संसार के संयोग से रहित है तथा जिसका नाम योग है, उसको जानना चाहिए। वह योग धैर्य और उत्साहयुक्त चित्त से निश्चयपूर्वक करना कर्तव्य है।

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥

 परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट हो, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है।

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नाश्चर्यमिदं विश्वं न किंचिदिति निश्चयी।
निर्वासनः स्फूर्तिमात्रो न किंचिदिव शाम्यति॥

 अनेक आश्चर्यों से युक्त यह विश्व अस्तित्वहीन है, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला, इच्छा रहित और शुद्ध अस्तित्व हो जाता है। वह अपार शांति को प्राप्त करता है।

नाहं देहो न मे देहो बोधोऽहमिति निश्चयी।
कैवल्यं इव संप्राप्तो न स्मरत्यकृतं कृतम्॥

न मैं यह शरीर हूँ और न यह शरीर मेरा है, मैं ज्ञानस्वरुप हूँ, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला जीवन मुक्ति को प्राप्त करता है। वह किये हुए (भूतकाल) और न किये हुए (भविष्य के) कर्मों का स्मरण नहीं करता है।

एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर।
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम॥

हे परमेश्वर! आप अपने को जैसा कहते हैं, यह ठीक ऐसा ही है, परन्तु हे पुरुषोत्तम! आपके ज्ञान, ऐश्वर्य, शक्ति, बल, वीर्य और तेज से युक्त ऐश्वर्य-रूप को मैं प्रत्यक्ष देखना चाहता हूँ।

आपदः संपदः काले दैवादेवेति निश्चयी।
तृप्तः स्वस्थेन्द्रियो नित्यं न वान्छति न शोचति॥

संपत्ति (सुख) और विपत्ति (दुःख) का समय प्रारब्धवश है, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला संतोष और निरंतर संयमित इन्द्रियों से युक्त हो जाता है। वह न इच्छा करता है और न शोक।

यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत्‌।
तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते॥

जब यह मनुष्य सत्त्वगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होता है, तब तो उत्तम कर्म करने वालों के निर्मल दिव्य स्वर्गादि लोकों को प्राप्त होता है।

कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम्‌।
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम्‌॥

श्रेष्ठ कर्म का तो सात्त्विक अर्थात् सुख, ज्ञान और वैराग्यादि निर्मल फल कहा है, राजस कर्म का फल दुःख एवं तामस कर्म का फल अज्ञान कहा है

मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः सा उच्यते॥

जो मान और अपमान में सम है, मित्र और वैरी के पक्ष में भी सम है एवं सम्पूर्ण आरम्भों में कर्तापन के अभिमान से रहित है, वह पुरुष गुणातीत कहा जाता हैूँ।

सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत॥

जिस समय इस देह में तथा अन्तः करण और इन्द्रियों में चेतनता और विवेक शक्ति उत्पन्न होती है, उस समय ऐसा जानना चाहिए कि सत्त्वगुण बढ़ा है।

यत्साङ्‍ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्यौगैरपि गम्यते।
एकं साङ्‍ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति॥

 ज्ञान योगियों द्वारा जो परमधाम प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियों द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। इसलिए जो पुरुष ज्ञानयोग और कर्मयोग को फलरूप में एक देखता है, वही यथार्थ देखता है।

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते॥

 परमेश्वर मनुष्यों के न तो कर्तापन की, न कर्मों की और न कर्मफल के संयोग की रचना करते हैं, किन्तु स्वभाव ही बर्त रहा है।

FAQ's

Frequently Asked Questions
Bhagavad gita quotes on karma ?

Here are the basic points about karmas given in Bhagwad Gita: Karmas are actions done by body or mind. Desire driven karmas are bad, Only karmas done for sacrifice are ok.

The Bhagavad Gita encourages children to develop a sense of faith and devotion, whether towards a higher power, a cause, or a sense of purpose. This connection provides a source of strength, solace, and guidance in navigating life’s complexities.

श्री गीता उपनिषदों का सार है। महाभारत युद्ध के समय रणभूमि में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को जो ज्ञान दिया था वह गीता में बताया गया है। गीता में ऐसी बहुत सी बातें हैं जो मनुष्य को जीवन की कई कठिनाइयों को आसान बनाती है। इतना ही नहीं गीता पढ़ने पर मनुष्य को बहुत सी नई जानकारियां भी मिलती है।

कर्म पर गीता के श्लोक क्या है ?

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥ गीता के इस श्लोक में फलरहित कर्म की प्रधानता पर बल दिया गया है.

किसी भी व्यक्ति, विचार या धातु के साथ ‘मैं’ को सम्बद्ध कर लेना ही अहंकार है । कुछ भी तुमने उसके साथ जोड़ दिया, ‘मैं ऐसा हूँ, मैं वैसा हूँ’, उस के साथ तुमने कुछ भी लगा दिया तो यही अहंकार है, और यह अहंकार तुम्हें कष्ट देगा ।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।

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